मत चूको राहुल गांधी – कांग्रेस में भी बना डालो मार्गदर्शकमंडल

कांग्रेस के पास समर्पित नेताओं की कमी है। वही थके-पिटे पुराने चेहरे पुराने आइडिया के साथ आते हैं। इनमें से बड़े चेहरे ज्यादातर वे हैं जो अपना चुनाव भी नहीं जीत सकते, केवल एसी कमरे में बैठकर ज्ञान देने में एक्सपर्ट हैं।

किशोर मालवीय , वरिष्ठ पत्रकार की कलम से

लोकसभा चुनाव के नतीजों ने सबसे ज्यादा कांग्रेस को विचलित कर दिया। इस चुनाव से पार्टी के रिवाइवल की सबको उम्मीद थी, खासकर गांधी परिवार को। लेकिन कामयाबी तो दूर, हार भी ऐसी मिली कि कई बड़े राज्यों में खाता तक नहीं खुला। राजस्थान जैसे राज्य जहां चार महीने पहले कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी की सत्ता को उखाड़ कर अपनी सरकार बनाई थी, वहां भी कांग्रेस का खाता नहीं खुला। 25 की 25 सीटें भाजपा की झोली में चली गई। लगभग यही हाल मध्य प्रदेश का रहा जहां 29 में केवल एक सीट ही कांग्रेस जीत पाई। इस हार से निराश कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पद से इस्तीफा दे दिया और बवंडर की शुरुआत यहीं से हुई।

राहुल गांधी के इस्तीफे पर जाने से पहले हमें ये देखना होगा कि आखिर चूक कहां हुई क्योंकि इस चुनाव में न सिर्फ राहुल ने काफी मेहनत की बल्कि ब्रह्मास्त्र के रुप में प्रियंका गांधी वाड्रा को भी मैदान में उतार दिया। राहुल और प्रियंका दोनो ने इस बार काफी मेहनत की। गरीबों को साल में 72 हजार रुपए देने के वायदे के साथ अब होगा न्याय का नारा भी दिया। लेकिन उनका ये नारा लोगों तक पहुंच नहीं पाया। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि कांग्रेस के पास समर्पित नेताओं की कमी है। वही थके-पिटे पुराने चेहरे पुराने आइडिया के साथ आते हैं। इनमें से बड़े चेहरे ज्यादातर वे हैं जो अपना चुनाव भी नहीं जीत सकते, केवल एसी कमरे में बैठकर ज्ञान देने में एक्सपर्ट हैं। खुद राज्यसभा के पिछले दरवाजे से जैसे तैसे संसद पहुंच जाते हैं। अब ऐसे नेता पूरी पार्टी को जीत दिलाने का दंभ भरते हैं।

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कांग्रेस को अच्छी बातें भाजपा से सीखनी चाहिए। आखिर क्या मजबुरी है कि कांग्रेस मार्गदर्शक मंडल बनाकर पुराने नेताओं को उसमें डाल दे, ऐसे नेता जो पार्टी के लिए नॉन परफॉरमिंग एसेट बन चुके हैं। जब राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई तब प्रदेश से सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की मांग उठी लेकिन तब इन्हीं वरिष्ठ नेताओं ने जोड़ तोड़ कर अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनवा दिया। भाजपा की तरह कांग्रेस रिस्क लेना नहीं जानती। भाजपा ने कई युवाओं को मुख्यमंत्री बना दिया जिनके नाम देश के लोगों ने पहले नहीं सुने थे। इनमें असम के सर्वानंद सोनोवाल, महाराष्ट्र के देवेन्द्र फड़नवीस और त्रिपुरा के विप्लव देब शामिल हैं। और ये सभी अच्छे काम कर रहे हैं। लेकिन कांग्रेस में मुख्यमंत्री बनने की पहली योग्यता ही 70 की उम्र पार करना है। नतीजा सबके सामने है। गहलोत राज्य में पार्टी का प्रचार करने के बजाए अपने बेटे वैभव गहलोत के लिए जोधपुर में धुनी रमाकर बैठ गए। राजस्थान में गहलोत ने कुल 110 रैलियां की जिनमें से 93 केवल जोधपुर में की। फिर भी अपने बेटे को नहीं जीता सके। आखिर क्या वजह है कि चार महीने पहले कांग्रेस को बहुमत देने वाली जनता इतनी नाराज हो गई कि कांग्रेस को खाता तक नहीं खोलने दिया। लेकिन बेशर्मी की इंतेहां देखिए, गहलोत जिम्मेवारी लेने और इस्तीफा देने को तैयार नहीं। न ही पार्टी आलाकमान में हिम्मत है कि उन्हें कुर्सी से हटा दे। क्या भाजपा में ये सम्भव था ?

कांग्रेस की एक मुश्किल और है कि उसने दूसरी पंक्ति का नेता तैयार नहीं होने दिया। या यूं कहें कि बड़े नेताओं ने तैयार होने नहीं दिया। इसलिए जब राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश करते हुए कहा कि कि गांधी परिवार से बाहर के किसी नेता को अध्यक्ष बनाओ तो सभी पसोपेश में पड़ गए। चारों तरफ नजर दौड़ाने के बाद भी कोई योग्य नेता नहीं दिखा जिसे राहुल की जगह अध्यक्ष बनाया जाए, सांकेतिक ही सही।

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कांग्रेस की रणनीति में एक दोष और है। वह खुद को अपडेट नहीं करती। 2014 के चुनाव में भाजपा ने भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाते हुए कांग्रेस को घेरा था। कांग्रेस ने 2014 की भाजपा की उस रणनीति को अपनाते हुए 2019 में भ्रष्टाचार को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया और राफेल पर भाजपा को घेरने की कोशिश की। लेकिन 2014 वाली रणनीति नहीं चली। लोग ये मानने को तैयार नहीं हुए कि नरेन्द्र मोदी भ्रष्ट हैं। कांग्रेस को भी देर सबेर ये एहसास हो गया था इसलिए वह बेरोजगारी को मुख्य मुद्दा बनाते हुए अब होगा न्याय का नारा दिया और 72 हजार रुपए सलाना पेंशन देने की बात कही। तब तक काफी देर हो चुकी थी। दूसरा, राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस का कोई और नेता अपनी रैलियों में इस मुद्दे को प्रचारित प्रसारित नहीं किया। कांग्रेस का पूरा प्रचार ही कनफ्यूज्ड था। कांग्रेस राफेल, बेरोजगारी और हिंदुत्व के चक्रव्यूह में फंस गई। एक तरफ हलाला का विरोध कर मुसलमानो को संतुष्ट करना और दूसरी तरफ चुनाव के समय मंदिर मंदिर जाकर हिंदुओं को खुश करने की कोशिश करना। ये मजहबी संतुलन बनाने की कोशिश चुनाव में काम नहीं आई। ये जानते हुए कि बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस मुसलमानों की पहली पसंद नहीं है, कांग्रेस 20 फीसदी मुसलमानो के तुष्टीकरण में लगी रही। वह भी 80 प्रतिशत हिन्दुओं को नाराज कर। इस मामले में भाजपा की स्थिति साफ है। वह साधारण गणित पर चलती है कि 80 हमेशा 20 से बड़ा होता है।

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भाजपा के राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भी कांग्रेस फंस गई। 2016 के सर्जिकल स्ट्राईक में मुंह की खाने के बाद भी कांग्रेसी नेता नहीं सुधरे। वे बालाकोट हवाई हमले पर सरकार से सबूत मांगते रहे। भाजपा तो यही चाहती थी। दरअसल, कांग्रेस इस मामले में भाजपा के ट्रैप में फंस गई। जब पूरा देश सर्जिकल स्ट्राईक पर जश्न मना रहा है तो आपको उस पर सवाल खडे करने नहीं चाहिए था। कम से कम चुनाव के समय तो कतई नहीं। जनता की समस्याओं से जुड़े जो मामले कांग्रेस ने उठाए थे उनसे ध्यान हटाने में भाजपा सफल हुई और जाने अनजाने कांग्रेस के कुछ बड़बोले नेताओं ने इसमे भाजपा की मदद की। अपने मुद्दे भूलकर कांग्रेस ने बालाकोट को चुनाव के केन्द्रबिन्दु में लाकर खड़ा कर दिया।

कांग्रेस को अब जबरदस्त आत्मचिंतन की जरुरत है। राहुल गांधी के इस्तीफा देने से कुछ नहीं होगा, सख्त कदम उठाना होगा। उन नेताओं को बहर का रास्ता दिखाना होगा जो पार्टी के लिए नॉन परफॉर्मिग एसेट बन चुके हैं और जो बना तो नहीं सकते खेल बिगाड़ जरुर देते हैं। दायित्व के साथ जवाबदेही तय करना जरुरी है। भाजपा लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे कद्दावर नेता को रिटायर कर सकती है तो कांग्रेस क्यों नहीं। जरुरत इच्छाशक्ति की है।