छठ पूजा अपने आप में कोई धार्मिक पर्व नहीं है बल्कि यह उस प्राचीन सनातनी परंपरा और आस्था का अंग है जिसने लंबे समय तक दुनिया का मार्गदर्शन किया था और जिसकी वजह से भारत को विश्वगुरु की उपाधि प्राप्त थी। दरअसल , दुनिया की तमाम प्राचीन सभ्यताएं चाहे वो मिश्र की सभ्यता हो या यूनान की प्राचीन सभ्यता, इन सबने आस्था और परंपरा के संदर्भ में प्राचीन भारतीय सनातनी परंपरा का ही अनुसरण किया है।
सनातनी धर्म को मानने वाले लोग आदिम काल बल्कि एक मायने में उससे सदियों पहले से ही प्रकृति की पूजा करते रहे हैं, समस्त सृष्टि की पूजा करते रहे हैं। आस्था के इस दौर में लोग सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी ,जल, अग्नि, वायु, पेड़ जैसे जीवनदायनी प्राकृतिक उपहारों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए इनकी आराधना किया करते थे। ये तमाम प्राकृतिक उपहार , मनुष्य के जीवन के लिए अनिवार्य तत्व है इसलिए इनकी आराधना करते समय मनुष्य के मन में श्रद्धा, समर्पण और आस्था जैसे भाव हुआ करते थे।
इसके बाद समय तेजी से बदलने लगा। युग बदलने लगे। प्राचीन उन्नत विज्ञान की जगह आधुनिक विज्ञान ने ले ली। प्राकृतिक उपहारों का दोहन तेजी से बढ़ने लगा। आधुनिक विज्ञान खासकर पश्चिमी सभ्यता पर आधारित आधुनिक विज्ञान के पैरोकारों ने जीवन और प्रकृति के अभिन्न आपसी सिद्धान्तों के बीच बने आस्था के डोर को काटना शुरु कर दिया । इन परंपराओं का मजाक उड़ाना शुरु कर दिया। लेकिन इसके बावजूद कुछ तो बात है कि भारत की अधिकांश जनसंख्या अब भी सनातनी परंपरा से जुड़ी हुई है और छठ इसी का एक प्रतीक है।
छठ और भगवान सूर्य
छठ का यह महापर्व भगवान सूर्य, उषा ,प्रकृति, जल और वायु को समर्पित है। वैसे तो आदिकाल से ही सूर्य की पूजा और उपासना संसार की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में अलग-अलग प्रकार से होती रही है क्योंकि सूर्य के बिना धरती पर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। भगवान सूर्य धरती पर जीवन की उत्पत्ति, अस्तित्व और विकास का स्रोत है। यह धरती पर पल रहे तमाम जीवन और ऊर्जा का स्रोत है। यह अंधेरे पर मनुष्य जाति की जीत का प्रतीक है। भारत में भी भगवान सूर्य की पूजा सृष्टि के आरंभ से ही की जाती रही है। ऋग्वेद के सूक्तों में भी भगवान सूर्य की पूजा का विशेष उल्लेख किया गया है लेकिन वास्तव में ऋग्वेद से पहले ( सृष्टि के आरंभकाल ) से ही मनुष्य भगवान सूर्य और प्रकृति से मिले हर जीवनदायनी उपहार की आराधना करता रहा है। भारत में कोणार्क ( ओडिशा ) , उलार्क सूर्य मंदिर ( बिहार ), पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर, औरंगाबाद ( बिहार ) से लेकर झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, राजस्थान और जम्मू कश्मीर सहित देश के लगभग हर हिस्से में भगवान सूर्य को समर्पित अनगिनत प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिर है।
इतिहासकारों के मुताबिक , भारतीय इतिहास के स्वर्णिम मगध काल के दौरान सूर्य पूजा की प्राचीन परंपरा ने और जोर पकड़ा इसलिए मगध क्षेत्र के लोगों पर सूर्य पूजा की प्राचीन परंपरा का प्रभाव ज्यादा दिखाई देता है। शायद इसलिए , आधुनिक भारत के वर्तमान दौर में बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में छठ का यह महापर्व अधिक लोकप्रिय है।
धार्मिक नहीं सनातनी व्रत का त्योहार है छठ
यह बिल्कुल सही है कि छठ का यह महापर्व मुख्यतः बिहार , बिहार से अलग होकर बने झारखंड और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में रहने वाले लोगों का पर्व है। लेकिन आज यह महापर्व भौगोलिक सीमाओं के सारे बंधन तोड़ कर ग्लोबल हो चुका है। बिहार , झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश की सीमाओं के बंधन को तोड़ कर यह महापर्व अब कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक मनाया जा रहा है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि , छठ का महापर्व अब राष्ट्रीय सीमाओं से भी परे जाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। दुनिया के जिस हिस्से में भी बिहार और उत्तर प्रदेश से जुड़े लोग रह रहे हैं , वहां-वहां वो लोग छठ पूजा की अवधारणा और मान्यताओं को स्थापित करने में जाने-अनजाने जुटे हुए हैं।
छठ का यह महापर्व केवल हिन्दू ही नहीं मनाता है , बल्कि लंबे समय से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमान भी सूर्य भगवान को समर्पित यह त्योहार जोशो-खरोश और आस्था के साथ मनाते रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से हम यह लगातार देख रहे हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में भी , पश्चिमी उत्तर प्रदेश से जुड़े जाट-गुर्जर और मुसलमान बड़े पैमाने पर छठ का त्योहार मना रहे हैं क्योंकि छठ का यह महापर्व किसी धर्म का प्रतीक नहीं है। यह महापर्व प्राचीन भारतीय सनातनी परंपरा का अभिन्न अंग है। वास्तव में यह महापर्व , धरती पर जीवन को संभव, सुगम और सरल बनाने वाले प्राकृतिक उपहारों के प्रति कृतिज्ञता जताने का पर्व है।
प्रकृति , प्राचीन परंपरा , सनातनी आस्था और छठ
छठ महापर्व की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें किसी विशेष देवता या भगवान की पूजा नहीं होती । न ही इस पूजा के लिए किसी मंदिर या पुजारी की जरूरत पड़ती है। इस महापर्व में सिर्फ व्रती होते हैं और प्रकृति होती है। इस व्रत में, व्रती तीन दिनों तक अन्न और जल का त्यागकर अपने शरीर को कष्ट देते हैं। खास बात यह है कि स्त्री और पुरुष , दोनों ही यह व्रत कर सकते हैं।
प्राचीन सनातनी परंपरा का अब शायद एकमात्र त्योहार छठ ही बचा रह गया है जो आज भी पूरी तरह से प्रकृति पर ही निर्भर है। मिट्टी के चूल्हे पर प्रसाद , गेहूं को पीसकर ठेकुआ, कसार, गुड़ और चावल का खीर, गन्ना, टाव,नींबू, नारियल, सरीफा, शकरकंद, केला, पानी फल, बांस निर्मित सूप- टोकरी और सुमधुर लोकगीत। एक-एक चीज पूरी तरह से प्रकृति से जुड़ी हुई है।
इसलिए तो छठ के इस पर्व को सनातनी परंपरा का महापर्व कहा जाता है।