फैज के बहाने एक और कन्हैया तलाशती सरकार 

1979 में तब की पाकिस्तानी हुकूमत ने भी फैज साहब को इस्लाम विरोधी घोषित किया था। तब के पाकिस्तानी तानाशाही समर्थकों ने फैज साहब को गद्दार घोषित कर रखा था। क्योंकि तब पाकिस्तान में मजहब के नाम पर ही सैन्य तानाशाही थोपी गई थी। 1977 में जनरल जियाउल हक ने पाकिस्तान में तख़्ता पलट किया था और 1978 में शरई कानून न मानने वालों को इस्लाम विरोधी करार दिया था। फैज साहब शरई कानून के खिलाफ थे।

असित नाथ तिवारी , वरिष्ठ पत्रकार की कलम से

2016 में जब सरकार की ग़लत नीतियों की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था के डूबने की शुरुआत हुई और रोजगार का संकट गहरा हुआ तब सरकार ने बड़ी चालाकी से एक ‘गद्दार’ की खोज की और देश का सारा ध्यान उस गद्दार की तरफ मोड़ दिया। फिर हुआ ये कि कौआ कान लेकर भागा और लोग कौए के पीछे भागे। तब देश के गृहमंत्री थे राजनाथ सिंह। राजनाथ सिंह ने अपने ट्विटर हैंडल पर जेएनयू के तत्कालीन छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गद्दार लिखा और कुछ घंटों बाद ही उसे डिलीट कर दिय़ा। राजनाथ सिंह और राजनाथ सिंह जैसे भाजपा नेता पहले ट्वीट और बाद में डिलीट के सियासी विद्यालय में ही दीक्षित हुए हैं। गोएब्ल्स कहता था कि किसी झूठ को इतना फैला दो कि लोग उसे ही सच मान लें। 2016 में तत्कालीन गृह मंत्री और भाजपा के बड़े नेताओं ने कन्हैया कुमार के मामले में यही किया। खैर राजनाथ सिंह से लेकर अब के गृह मंत्री अमित शाह तक, दिल्ली पुलिस कन्हैया के खिलाफ कोई सबूत नहीं खोज पाई लेकिन, देश की एक बड़ी आबादी बिना किसी ठोस सबूत के कन्हैया को आज भी टुकड़े गैंग का नेता बताती है क्योंकि, प्रचार तंत्र के जरिए सत्ता ने इस झूठ को इतना फैलाय़ा कि लोग इसे ही सच मानने लगे।

अब, जबकि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से डूब चुकी है, नए रोजगार की संभावना तो दूर जिनके पास रोजगार है उसे बचाना ही मुश्किल हो गया है और बीजेपी के ही सांसद सुब्र्हमण्यम स्वामी ये स्वीकार कर चुके हैं कि हम बर्बादी के तरफ धकेले जा चुके हैं तब, सत्ता को लोगों का ध्यान बांटने के लिए फिर गोएब्ल्स की शरण में जाना पड़ा है। और यही वजह है कि सरकार एक और ‘कन्हैया’ की तलाश में जुट गई है। जेएनयू में सरकार ने काम आसानी कर लिया क्योंकि जेएनयू में शहीद भगत सिंह की विचारधारा वाली राजनीति चलती है जो भाजपा की विभाजनकारी विचारधारा को वहां पनपने नहीं देती। जाहिर है उस विभाजनकारी सोच का वहां जमकर विरोध हुआ और उसी विरोध को सत्ता के तंत्र ने देशद्रोह के नाम से प्रचारित किया। अब फिर आसान टारगेट सेट किया गया है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया, ये नाम ही काफी है विभाजनकारियों के लिए। नफरत के लिए धर्म का इस्तेमाल करने वाली राजनीति जामिया नाम से ही काफी काम कर लेगी। और फिर अब यहां कोई ‘कन्हैया कुमार’ खोजा जाएगा। बिना किसी सबूत के उसे देशद्रोही, गद्दार, टुकड़े-टुकड़े गैंग का सरगना कहा जाएगा। एक बार फिर कौआ कान लेकर भागेगा और कौए के पीछे लोग भागेंगे। सत्ता की शह पर गोएब्ल्स की औलादें आम आदमी को यकीन दिलाने में कामयाब होंगी कि जामिया मिल्लिया देशद्रोही गतिविधियों का अड्डा है। एक झूठ को इतना फैलाया जाएगा कि लोग उसे ही सच मानने लगेंगे। इसलिए ज़रूरी है कि इस वक्त फैज अहमद फैज को याद किया जाए।

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अब, जबकि आईआईटी कानपुर प्रशासन ने साफ कर दिया है कि संस्थान फैज अहमद फैज की किसी रचना की जांच नहीं कर रहा है फिर भी हमें फैज साहब की रचनाधर्मिता पर बहस करनी चाहिए। आईआईटी कानपुर को जा काम सौंपा गया है दरअसल वो वही काम है जिसके जरिए एक नए कन्हैया कुमार की खोज होगी। रही बात संस्थान प्रबंधन के बयान की तो उसपर आंख मूंद कर इसलिए भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि इस दौर में देश के प्रधानमंत्री मंचों से धड़ाधड़ गलत सूचना दे रहे हैं। कई मंत्री लगातार सदन को गलत जानकारी दे रहे हैं तो फिर भला सच का सारा ठेका अकेले आईआईटी कानपुर ही लेकर क्यों घूमे। तो अगर आईआईटी कानपुर फैज साहब की ग़ज़ल में हिंदू विरोध की तलाश कर रहा है तो उसे करने दीजिए। 1979 में तब की पाकिस्तानी हुकूमत ने भी फैज साहब को इस्लाम विरोधी घोषित किया था। तब के पाकिस्तानी तानाशाही समर्थकों ने फैज साहब को गद्दार घोषित कर रखा था। क्योंकि तब पाकिस्तान में मजहब के नाम पर ही सैन्य तानाशाही थोपी गई थी। 1977 में जनरल जियाउल हक ने पाकिस्तान में तख़्ता पलट किया था और 1978 में शरई कानून न मानने वालों को इस्लाम विरोधी करार दिया था। फैज साहब शरई कानून के खिलाफ थे। 1979 में फैज साहब ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ ग़ज़ल के जरिए जियाउल हक की तानाशाही के खिलाफ आवाज बुलंद की। फैज साहब की ये गजल हिंदी और उर्दू की हर जुबान पर चढ़ी। पाकिस्तान में जनरल की तानाशाही के खिलाफ नारा बना ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’। सरहद पार कर ये तराना भारत पहुंचा और फिर भारत के बाद नेपाल। नेपाल की राजशाही के खिलाफ खड़े हुए आंदोलन के दौरान इसे खूब गाया गया।

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जाहिर है तानाशाही के खिलाफ खड़ी ये रचना किसी भी तानाशाह को पसंद नहीं आएगी इसलिए, ज़रूरी है कि जनतंत्र के पक्ष में खड़ा हर आदमी इसे गुनगुनाता रहे। तय मानिए गोएब्ल्स की औलादें  इस तराने को हिंदू विरोधी प्रचारित करेंगी। आप उनसे बौद्धिकता, नैतिकता की उम्मीद ही ना करें। उनका काम ही है किसी झूठ को इतना फैला देना कि लोग उसे ही सच मान लें।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए सिर्फ लेखक ही उत्तरदायी है । आप भी हमे अपने विचार या लेख – onlypositivekhabar@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।)