सवेरे सात बजे मैटुपलायम स्टेशन पर उतर कर हम तीनों लोग अपना अपना सूटकेस और बैग उठाकर नीलगिरी एक्सप्रेस उतर कर दूसरी नीलगिरी टॉय ट्रेन पकड़ने के लिए चल पड़े।
नीलगिरी माउंटेन रेलवे का इतिहास
नीलगिरी माउंटेन रेलवे सन 1908 में स्थापित हुई थी। अंग्रेज़ जब भारत में आये तो अपने साथ रेलवे भी लेकर आये। यूँ तो अंग्रेज़ों ने रेलवे का विकास अपने हितों और सामरिक महत्व को ध्यान में रख कर किया था, लेकिन उन्हें इस बात का क़तई इल्म नहीं रहा होगा कि एक दिन उन्हें ये देश छोड़कर जाना होगा और उनके द्वारा बिछाया गया रेलवे का जाल भारत की जीवन रेखा बन जायेगा। आज भी रेलवे को कितना भी कोसें या उसकी लेट लतीफ़ी को गरियाये लेकिन ये सच है की भारतीय रेल आज भी भारत की जीवन रेखा है और इसी जीवन रेखा का एक छोटा सा टुकड़ा ये नीलगिरी माउंटेन रेलवे है। अंग्रेज़ जब भारत में रहने लगे तो देश के अधिकांश हिस्सों में साल के बारहों महीने पड़ने वाली गरमी और उमस के मौसम से परेशान रहने लगे अत: उन्हें ठंडी जगह और मौसम की ज़रूरत महसूस होने लगी। इसी ज़रूरत को पूरा करने के लिये अंग्रेज़ों ने हिन्दोस्तान के पहाड़ों में खोज खोज कर हिल स्टेशन बनाये। भारत के अधिकांश प्रमुख पहाड़ी पर्यटक शहर अंग्रेज़ों द्वारा विकसित किये गये थे। इसी विकास के क्रम में पहाड़ों में रेलवे का विकास भी अंग्रेज़ों द्वारा किया गया जिसमें
सन 1903 में स्थापित कालका- शिमला
रेलवे, 1879-1882 के दरम्यान बनाई गई 88 किलोमीटर लम्बी हिमालयन दार्जिलिंग रेलवे जो न्यू जलपाई गुड़ी और दार्जिलिंग के बीच चलती है। काँगड़ा वैली रेलवे जो पठानकोट- जोगिंदर नगर को जोड़ती है, 1904 से 1907 के बीच बनी 21 किलोमीटर लम्बी माथेरन रेलवे जो नरेल और माथेरन के बीच चलती है। ये सारी की सारी पहाड़ी रेलवे लाइनें अंग्रेज़ों ने बनाई थीं जो आज भी सुचारू रूप से चल रहीं हैं। से सारी रेल लाइनें आज विश्व धरोहर हैं। नीलगिरी माउंटेन रेलवे 46 किलोमीटर लम्बी है और इसके बहुत बड़े हिस्से पर कुनुर तक स्टीम इंजन से चलने वाली भारत की एक मात्र रेलवे है।
मैटुपलायम स्टेशन पर गाड़ी में चड़ने के लिये लाइन लगी थी लेकिन वो सेकंड क्लास के यात्रियों के लिये थी। फ़र्स्ट क्लास के यात्री कम थे इसलिये लाइन की ज़रूरत नहीं थी। डिब्बे के सामने गहरे साँवले रंग की महिला टी टी खड़ी थी उसने हमारा टिकट चैक करके हमें डिब्बे में चढ़ने दिया। फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा सिर्फ़ नाम का था उसमें कोई क्लास नहीं थी। मूल डिब्बे के साथ छेड़- छाड़, काँट- छाँट करके उसे दो हिस्सों में बॉंट कर आठ- आठ लोगों के बैठने के लायक़ बना दिया गया था। ये डिब्बे और इंजन सौ साल से ज़्यादा पुराने है और भारतीय रेल इनको आज भी चला रही है तो ये गर्व की बात है। बहरहाल जैसे तैसे हम उसमें बैठ गये। बैठे ऐसे थे कि सबको अपने पैर सिकोड़ने पड़ रहे थे।
हमारे सामने एक लड़का और एक नया शादी- शुदा जोड़ा था जो शायद अपने हनीमून पर ऊटी जा रहे थे। तभी एक बुजुर्ग जोड़ा आया और महिला हमारे सामने वाली अपनी रिज़र्व सीट पर बैठ गईं उनकी एक सीट वेटिंग थी जिससे बुजुर्ग बड़े परेशान दिख रहे थे। मैं उनकी अकुलाहट और बैचैनी ताड़ गया चूँकि मेरी चार सीट रिज़र्व थी लेकिन हम थे तीन यात्री मेरी बेटी हमारे साथ नहीं आ पाई थी इसलिये उसकी एक सीट ख़ाली थी। मैंने उन महिला को अंग्रेज़ी में कह कर एक सीट देने की पेश कश कर दी लेकिन बुजुर्ग महिला को हिन्दी और अंग्रेज़ी समझ में नहीं आती थी। सामने वाला लड़का जो तमिल था ऊटी घूमने जा रहा था उसने उन्हें तमिल में हमारी पेशकश समझाई तो उनकी बॉंछे खिल गई जो सिर्फ़ हमें ही दिखाई दी।
गाड़ी में बहुत भीड़ थी। स्टेशन पर काफ़ी गहमा गहमी हो रही थीं इस ट्रेन से जाने वालों में विदेशी पर्यटकों का एक बहुत बड़ा ग्रुप आ गया था जिनके रिज़र्वेशन में कुछ गड़बड़ थी या रिज़र्वेशन नहीं था। उनके ग्रुप लीडर बड़े परेशान दिख रहे थे और वो उस महिला टी टी से बात चीत करते हुये चिंतित लग रहे थे। रेलवे के टीटीऔं के बारे में लोगों की आम राय बड़ी ख़राब है लेकिन इस महिला टी टी ने उन सबको बाठन् के लिये सीट दे दी या उनकी समस्या का समाधान कर दिया। सभी अपनी अपनी सीटों पर बैठ गये और इंतज़ार करने लगे उस सीटी का जो कभी रेलवे का रोमांस हुआ करता थी, आज अतीत है। ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। स्टीम इंजन ने धुँआ छोड़ा और वो सुरीली आवाज़ सुनाई दी जो हमारी पीढ़ी के लोगों के लिये तो परिचित है लेकिन आज की पीढ़ी उसे सिर्फ़ पुरानी फ़िल्मों में ही सुन सकती है। गाड़ी छुक- छुक करती हुई आगे बड़ने लगी और मैं बचपन की पुरानी यादों में खो गया जो भाप इंजन के दौर से जुड़ी हुई है जिन्हें फिर कभी कुरेदा जायेगा।
बुजुर्ग दम्पति अब कर सैटल हो चुके थे और उन्होंने साथ लाया पूरी भाजी और सांभर वडा खाना शुरू कर दिया। खाते खाते बुजुर्गवार से सांभर या सब्ज़ी जो भी था गिर गया और वो उनकी पेंट के उपर से गिरते हुये हमारे सूटकेस के पास ठहर गया। सूटकेस का कुछ हिस्सा भी इससे थोड़ा प्रभावित हो गया। इस बात पर बुजुर्ग महिला ने उनको तमिल में शायद डाँट लगाई जो हमें समझ नहीं आई। ख़ैर उन्होंने पानी से कपड़ा भिगोकर अपनी पेंट साफ़ कर ली और फिर बेफ़िक्री से बैठ गये।
टॉय ट्रेन अपनी मंद गति से सर्पाकार रेल लाइन पर बल खाती हुई अल्हड़ मद मस्त युवती की तरह आगे चलती जा रही थी। नीलगिरी की पहाड़ियॉं मज़बूत पत्थर की पहाड़ियाँ है जिन्हें बड़ी मेहनत से काटकर बनाया गया होगा। ये भी इंजीनियरिंग का कमाल है क्योंकि उस समय जब इसका निर्माण किया गया होगा तब न कम्प्यूटर था न इतनी मशीनें जो आज हैं। पहाड़ियों पर हरियाली छाई हुई थी और शुद्ध ऑक्सीजन जिसके लिये दिल्ली वाले तरसते है मुफ़्त में बेहिसाब इतनी मिल रही थी कि मन कर रहा था उसे सूटकेस में भर लें। इस लाइन पर सुरंगें ज़्यादा नहीं हैं और न ही कोई बहुत बड़ी सुरंग है जैसी कालका- शिमला लाइन पर है। लेकिन जैसे ही कोई सुरंग आती बच्चों के साथ साथ बड़े भी एक साथ सामूहिक रूप से चिल्लाने लगते और उस उल्लास पूर्ण होऔऔऔ, हैऐऐऐऐऐ के शोर से सुनसान सुरंग अचानक से जीवंत हो जाती।
रास्ते में गाड़ी चाय पानी के लिये हिल ग्रोव स्टेशन पर रूकी। स्टीम इंजन है उसे कोयले के साथ पानी तो चाहिये ही होता है तभी उसकी चाय बनती है और तब जो स्टीम बनती है उसी एनर्जी से गाड़ी चलती है। हमें भी अपनी एनर्जी के लिये स्टीम की ज़रूरत थी जो चाय के साथ मसाला वडा खाकर मिली।
हिल ग्रोव स्टेशन से चलने के बाद विदेशी यात्रियों में कुछ और जोश जगा। ये जोश जगाने वाली थी महिला टी टी जिसका नाम वल्ली था। वल्ली बहुत ज़िंदादिल महिला लगी उसने सबसे पहले ख़ुद गाना शुरू किया जिसे देखकर एक विदेशी लड़की ने भी गाना शुरू कर दिया। उस विदेशी गाने के बोल तो कम ही लोगों को समझ आये होंगे लेकिन स्वर और लय के साथ शानदार गाया था।
हिल ग्रोव के बाद गाड़ी कुनुर स्टेशन पर रूकी जहाँ पर रेलवे का स्टाफ़ बदलता है और गाड़ी में स्टीम की जगह डीज़ल का इंजन लगता है। वल्ली की डियुटी यहाँ पर ख़त्म हो गई लेकिन उसकी मिलनसारता और देखने को मिली की स्टेशन की एक महिला कर्मचारी जो अपने बच्चे के साथ थी ने अपना बच्चा उसे पकड़ा दिया और वल्ली उसे वंदेमातरम गाकर सुनाने लगी। रेलवे की अवैतनिक ब्रैंड एम्बेसडर।
कुनुर से डीज़ल इंजन के साथ ये गाड़ी वेलिंगटन होते हुये दोपहर के साढ़े बारह बजे ऊदागमंडलम स्टेशन पहुँच गई।मैटुपलायम से ऊदागमंडलम तक का कुल 46 किलोमीटर लम्बा सफ़र ये गाड़ी लगभग साढ़े पाँच घंटे में पूरा करती है।
उदागमंडलम स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ही हल्की फुहारों ने हमारा स्वागत किया। मौसम बहुत सुहावना था। हल्की फुहारों के साथ साथ हवा भी ठंडक दे रही थी। स्टेशन से बाहर निकलते ही आटो व टैक्सी वालों ने आकर हमें घेर लिया। उन्हीं में से एक टैक्सी वाले ने हमसे होटल तक के ढाई सौ रूपये माँगे जो मुझे दिल्ली से ज़्यादा लगे क्योंकि दूरी सिर्फ़ चार किलोमीटर थी। अभी मैं मोल भाव कर ही रहा था कि मेरा बेटा बीच में बेल पड़ा “ डैडी ढाई सौ रूपये ठीक ही तो माँग रहा है” अब मोल भाव का सारा स्कोप ही ख़त्म हो गया, बारिश भी तेज़ हो रही थी हम टैक्सी मैं बैठे और होटल की तरफ़ चल पड़े। बाहर शहर का नज़ारा बेहद शानदार था। चारों तरफ़ सफ़ाई दिख रही थी। ट्रेफ़िक सुस्त चाल से चल रहा था। किसी को कोई जल्द बाज़ी नहीं थी। हॉर्न की आवाज़ें कम सुनाई दे रहीं थी।
ऊदागमंडलम का प्रचलित नाम है ऊटी
ऊटी शहर पहाड़ियों और घाटी में बसा हुआ है। कार की खिड़की से बाहर का नजारा देखने पर पहाड़ियों के उपर बादल तैरते नज़र आ रहे थे। शहर के बाज़ार में दुकानों पर होम मेड चाकलेट के बोर्ड बहुत दिख रहे थे। इन बोर्डों में एक अलग बोर्ड और था और वो सबसे ज़्यादा और अधिक दिख रहा था वो था “ Say No To Plastic” इसी बीच ड्राईवर से मैंने उसका नाम पूछा, जो मेरी आदत है, इससे एक बातचीत करने में आसानी हो जाती है और ड्राईवर सहज भी हो जाता है। जैरी , उसने बताया। ये अंदाज़ा मुझे उसकी कार में लटकते हुये क्रॉस के निशान को देख कर हो गया था कि वो ईसाई धर्म को मानने वाला है। जैरी, अपने सम्भावित ग्राहक को पहचानते हुये शहर के बारे में बताता हुआ हमें होटल की ओर ले जा रहा था।एक एक इशारा करते हुये उसने बताया कि ये ऊटी लेक है। संकरी पहाड़ियों के रास्ते से चलते हुये हम होटल की ओर बड़ रहे थे। हमारा होटल शहर से थोड़ा हटकर कर था। जहाँ शहर की सड़के साफ़ और गड्डे रहित थी, वही ये सड़क टूटी फूटी और संकरी थी। सड़क के किनारे नालियों में पानी भरा हुआ था जिसने सड़क को तोड़ दिया था। मकान लगभग सभी पक्के थे, झोंपड़ियाँ दिखाई नहीं दे रहीं थी जिससे पता चलता था कि शहर सम्पन्न है। सड़क के दूसरी तरफ़ घाटी दिख रही थी। घाटी में चारों तरफ़ सीढ़ीदार खेत थे। यहाँ एक बात मैं और बताता चलूँ जो पिछली पोस्ट में बताना भूल गया कि जब हम मैटुपलायम से टॉय ट्रेन में बैठे थे तो पहले स्टेशन हिल ग्रोव के आने से पहले से ही पहाड़ों के चारों तरफ़ चाय के बाग़ान शुरू हो जाते है। पहाड़ियों पर देवदार के पेड़ और चाय के बाग़ान ही दिखाई देते है। नीलगिरी के पहाड़ों में बेहतरीन क़िस्म की चाय पैदा होती है जो नीलगिरी चाय के नाम से मशहूर है। जिस तरह दार्जिलिंग चाय पूरी दुनिया में मशहूर है वैसे ही नीलगिरी चाय भी मशहूर है लेकिन मार्केटिंग और ब्रॉंडिग के लिहाज़ से नीलगिरी चाय, दार्जिलिंग चाय से पिछड़ गई है। दूर से देखने पर चाय के बाग़ान ऐसे लगते है कि किसी ने बड़े क़रीने से इनकी कटाई की हो। इनके बीच में टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों में मज़दूर पत्तियॉं तोड़ रहे थे जिनमें अधिकांश महिलायें थी। दक्षिण भारत में महिलायें हर क्षेत्र में पुरूषों के बराबर काम करती है। यहाँ शायद ही कोई क्षेत्र हो जहाँ महिलायें काम करते हुये न दिखें। बरसात में भी ये महिला मज़दूर प्लास्टिक की बरसाती पहन कर चाय की पत्तियॉं तोड़ रहीं थी। काम कर रहीं थी
चाय के पेड़ या पौधा कहिये की उम्र लगभग पन्द्रह से बीस वर्ष तक की होती है। हर पन्द्रह दिन में इन पौधों की उपर की आठ दस पत्तियों को तोड़ा जाता है वही चाय बनाने के काम आती है। बड़ी पत्तियों को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है।
लेकिन ये सीढ़ीदार खेत चाय के बाग़ान नहीं थे। इन खेतों में गोभी, गाजर, आलू,चुकंदर और पत्ता गोभी उगाया जाता है। गोभी, गाजर, आलू, पत्ता गोभी की फ़सल लहलहा रही थी। यहाँ भी महिलायें न केवल खेतों बल्कि ट्रकों में सब्ज़ियॉॉ भरने का काम भी कर रही थी।
अचानक कार के ब्रेक लगे और गाड़ी क़रीब क़रीब उछल गई और अगली सीट पर रखा हमारा बैग गिर गया। ये सड़क का गड्डा था। इस दरम्यान जैरी ने हमें ऊटी शहर घुमाने के और आस आस के पर्यटक स्थल दिखाने के अपने रेट बता दिये थे। जैरी मुझसे ज़्यादा मेरे बेटे से बात कर रहा था और उसको ही घुमाने के रेट बताये थे। मैंने उसे बाद में बताने के लिये कह दिया।
अगले कुछ मिनटों में हम अपने होटल पहुँच गये। होटल की लेकेशन बहुत शानदार थी। होटल पहाड़ी की चोटी पर बना हुआ था। एक तरफ़ से पूरा ऊटी शहर दिख रहा था तो बाक़ी तीन ओर घाटियाँ थी। होटल में चारों तरफ़ विभिन्न क़िस्मों के फूलों के पौधे लगे हुये थे। घाटी में बादल तैर रहे थे। ये सब देख कर मन प्रसन्न हो गया।
होटल में पहले से ही बुकिंग थी। रिसेप्शन पर हमें कमरा दे दिया गया। और हम अपने कमरे में आ गये।परंतु होटल देख कर जो प्रसन्नता हुई वो कमरा देखकर काफ़ूर हो गई। कमरा तीन लोगों के हिसाब से छोटा था और कमरे से व्यू भी अच्छा नहीं था। हमने रिसेप्शन मैनेजर से कमरा बदलने को कहा लेकिन उसने कोई कमरा ख़ाली नहीं है कह कर बात टाल दी। मन बड़ा खिन्न हुआ। ख़ैर मैंने अपनी बेटी को फ़ोन किया जो होटेल इंडस्ट्री में ही देश के एक बहुत ही नाम चीन ब्रांड में काम करती है।उसने अपने किसी परिचित से कहलवा कर हमारा कमरा अपग्रेड करवा दिया। जो मैनेजर पहले सुन नहीं रहा था वो अब हमें चार कमरे दिखा चुका था जो हमें पसंद नहीं आ रहे थे। बहरहाल एक दूसरे कमरे में हम शिफ़्ट हो गये। अब तक हम ढाई दिन की ट्रेन यात्रा से बुरी तरह थक चुके थे और कहीं भी जाने का मन नहीं कर रहा था अत: तय हुआ कि आज होटल में ही आराम करेंगे और कल ही घूमने जायेंगे।
होटल की घटना से मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि ये होटल वाले पैसे तो पूरे लेते है लेकिन पसंद अपनी थोपते है। बहाना बनाते है की और कमरे नहीं है लेकिन जब इनके मालिक का फ़ोन या कोई बड़ी सिफ़ारिश आ जाती है तो सब कुछ सही हो जाता है। मुझे लगता था कि सिफ़ारिश सिर्फ़ सरकार में ही काम करती है लेकिन नहीं प्राइवेट सेक्टर भी सिफ़ारिश और जुगाड़ पर काम करता है।
सफ़रनामा अभी जारी है……