मध्य प्रदेश में कमलनाथ बनाम कमल की लड़ाई में आखिरकार यह तय हो गया कि एक बार फिर से इस राज्य में कमल खिलने जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद शुक्रवार को विश्वास मत हासिल करने के लिए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने दोपहर 2 बजे विधानसभा का सत्र बुलाया था। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार राज्य की कांग्रेस सरकार को हर हाल में विधानसभा के पटल पर शुक्रवार शाम 5 बजे तक विश्वास मत का प्रस्ताव लाकर यह साबित करना था कि उनके पास बहुमत है या नहीं।
कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेता शुक्रवार सुबह तक विधानसभा में बहुमत साबित करने का दावा करते रहें लेकिन इसके बाद घटनाक्रम तेजी से बदला।विधानसभा स्पीकर ने इस्तीफा देने वाले सभी कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे स्वीकार करने की घोषण कर दी और स्पीकर के इसी फैसले के साथ यह तय हो गया कि प्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने सरेंडर कर दिया। दोपहर 12 बजे कमलनाथ ने मुख्यमंत्री आवास पर प्रेस कांफ्रेंस करके एक बार फिर से भाजपा पर षडयंत्र करने का आरोप लगाया। कांग्रेस छोड़ कर भाजपा जॉइन करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को महत्वाकांक्षी बताते हुए तीखा हमला बोला। कमलनाथ ने यहां तक आरोप लगा डाला कि भाजपा ने एक महाराज और 22 विधायकों के साथ मिलकर उनकी सरकार गिराने के लिए षडयंत्र रचा। इसके बाद फ्लोर टेस्ट से पहले ही उन्होंने इस्तीफे का ऐलान कर दिया और राज्यपाल लालजी टंडन को जाकर अपना इस्तीफा सौंप दिया।
15 साल बाद मिली सत्ता को केवल 15 महीनों में ही गंवा दिया कमलनाथ ने
लगातार 15 वर्षों तक भाजपा से हार कर मध्य प्रदेश की सत्ता से बाहर रहने वाली कांग्रेस को 2018 के आखिर में हुए विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश की जनता ने मुस्कुराने का मौका तो दे दिया था लेकिन पूर्ण बहुमत नहीं दिया था। राज्य में लगातार 3 बार मुख्यमंत्री रह चुके शिवराज सिंह चौहान ने 2018 में सरकार बनाने को लेकर ज्यादा उत्सुकता नहीं दिखाई और ऐसे में कांग्रेस ने सपा, बसपा और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार का गठन किया। उस समय कांग्रेस आलाकमान को मुख्यमंत्री चुनने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। राहुल गांधी के सामने एक तरफ ज्योतिरादित्य सिंधिया थे , जो उनके बहुत ही पुराने और करीबी मित्र थे तो दूसरी तरफ 72 वर्षीय कमलनाथ थे जिन्हें कांग्रेस के ज्यादातर बुजुर्ग नेताओं का समर्थन हासिल था। यहां तक कि मध्य प्रदेश में पहले 10 सालों तक कांग्रेसी मुख्यमंत्री के रूप में सरकार चला चुके दिग्विजय सिंह ने भी माहौल को भांप कर अपनी दावेदारी जताने की बजाय कमलनाथ की पीठ पर हाथ रख दिया।
नतीजा , कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह और पार्टी के बुजुर्ग नेताओं के समर्थन के सहारे ज्योतिरादित्य सिंधिया और राहुल गांधी की जोड़ी को मात देकर प्रदेश की कमान संभाली। सबसे मजेदार वाक्या तो उस समय यह रहा कि कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान राहुल गांधी से ही करवाया गया। राहुल ने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ तस्वीर ट्वीट कर अपने सबसे करीबी मित्र को सब्र करने की सलाह दी।
उसी समय कांग्रेस आलाकमान ने एक सलाह कमलनाथ को भी दी थी। प्रदेश के सभी गुटों को साथ लेकर चलने की सलाह। कमलनाथ से यह उम्मीद की गई कि वो दिग्विजय सिंह की तरह सभी गुटों को साथ लेकर सरकार चलाएंगे। दिग्विजय सिंह ने 1993 से 2003 के दौरान प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी नेताओं शुक्ला बंधु, अर्जुन सिंह , माधवराव सिंधिया और मोतीलाल वोरा समेत सभी गुटों के साथ बेहतर तरीके से समन्वय स्थापित करते हुए सरकार चलाई थी।
लेकिन दिग्विजय सिंह के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने वाले कमलनाथ उनकी तरह से दांव-पेंच नहीं सीख पाए या ये भी कह सकते हैं कि सीखने की कोशिश ही नहीं की। ज्योतिरादित्य सिंधिया के 2019 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद से ही कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी ने मिलकर ज्योतिरादित्य सिंधिया को किनारे करना शुरू कर दिया। प्रदेश में अपनी ही सरकार में अपना ही मुख्यमंत्री उनकी सुनने को तैयार नहीं था। केंद्र में उनके करीबी मित्र राहुल गांधी ने बुजुर्ग नेताओं की हठधर्मिता से परेशान होकर राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया। अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी ने फिर से पार्टी की बागडोर संभाल ली। ज्योतिरादित्य सिंधिया की हताशा लगातार बढ़ती जा रही थी । भोपाल में उनकी चल नहीं रही थी। दिल्ली का पार्टी आलाकमान भी उन्हें सुनने को तैयार नहीं था और फिर वही हुआ जो ऐसे हालात में होता है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को सबक सिखाने का फैसला कर लिया। अपने समर्थक विधायकों से इस्तीफे दिलवाकर पहले उन्हें दिल्ली के रास्ते से हरियाणा भेजा और फिर इन सबको बेंगलुरु रवाना कर दिया।
बाजी उसी समय कमलनाथ के हाथ से निकल गई थी लेकिन उन्होंने अंतिम समय तक सरकार बचाने की कोशिश जरूर की। विपक्ष की मांग को नकार दिया। विश्वास मत हासिल करने के राज्यपाल के आदेश को मानने से इंकार कर दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद उनके सामने कोई चारा नहीं बचा और आखिरकार प्रदेश में कमलनाथ मुरझा ही गए। अपनी ही पार्टी के एक दिग्गज नेता को लगातार अपमानित करने वाले कमलनाथ को इसका अंदाजा भी नहीं लगा कि इसका खामियाजा उन्हें अपनी सरकार खोने के रूप में उठाना पड़ सकता है। हर कीमत पर दिग्विजय सिंह की बात मानने वाले कमलनाथ को शायद इसका अहसास भी नहीं हो पाया कि जब खतरा आएगा तो दिग्विजय सिंह उनकी सरकार को बचा नहीं पाएंगे। दिग्गी राजा के करीबी विधायक भी अंतिम समय पर कांग्रेसी खेमे से गायब दिखाई दिए। निश्चित तौर पर यह कमलनाथ की नाकामी रही कि वह सभी गुटों में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाए। विधानसभा चुनाव की जीत में बड़ी भूमिका निभाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने साथ नहीं रख पाए। कांग्रेसी विधायकों की नाराजगी को दूर नहीं कर पाए। समर्थन देने वाले सपा और बसपा विधायकों को भी साथ नहीं रख पाए। उनकी नाक के नीचे से 22 विधायक इस्तीफा देकर गायब हो गए और उन्हें ख़बर तक नहीं लगी । इन तमाम नाकामियों की वजह से महज 15 महीने में ही मध्य प्रदेश में कमलनाथ मुरझा गए और फिर से मध्य प्रदेश में कमल खिलने जा रहा है।
कांग्रेस की बजाय राहुल गांधी के लिए बड़ा राजनीतिक झटका
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का जाना एक सामान्य राजनीतिक घटना नहीं है। भले ही कांग्रेस भाजपा के षड़यंत्र की बात करें लेकिन इस विदाई ने बड़ा राजनीतिक सवाल खड़ा कर दिया है। यह निश्चित तौर पर कमलनाथ के लिए राजनीतिक झटका है , दिग्विजय सिंह के लिए राजनीतिक हार है , कांग्रेस के लिए बुरा संदेश है लेकिन यह सबसे ज्यादा बड़ा झटका है राहुल गांधी के लिए। कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए और हम यहां तक कह सकते हैं कि कांग्रेस के भावी राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए।
सोचिए , जिस नेता की राहुल गांधी के घर में सीधी एंट्री होती हो , जिस नेता को आलाकमान से मिलने के लिए अपॉइंटमेंट नहीं लेना पड़ता हो। जो पार्टी के पूर्व और भावी अध्यक्ष का सबसे करीबी हो । अगर वह पार्टी छोड़ कर जा सकता है तो फिर भरोसा किस पर करें। कांग्रेस आलाकमान का करीबी ही अगर सरकार गिराने के खेल में शामिल हो जाए तो फिर कांग्रेस की कितनी सरकारें बच पाएंगी।
यह सवाल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं से ज्यादा खुद राहुल गांधी के लिए है। अगर वो अपने करीबी नेता के सम्मान को भी पार्टी में नहीं बचा पा रहे हैं। अगर उनके करीबी नेता भी उन पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं या राहुल गांधी अपने ही करीबी नेताओं को पार्टी में नहीं रोक पा रहे हैं तो फिर उन पर भरोसा कौन करेगा ? याद कीजिए कि बिहार , उत्तर प्रदेश , महाराष्ट्र, हरियाणा और अब मध्य प्रदेश में एक एक करके टीम राहुल के युवा नेता सामने आ रहे हैं और आरोप लगा रहें कि टीम राहुल का सदस्य होने की वजह से उन्हें किनारे लगाया जा रहा है। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि अगला नंबर अब राजस्थान का है क्योंकि वहां भी सोनिया गांधी के एक करीबी और बुजुर्ग नेता मुख्यमंत्री हैं और राहुल गांधी के करीबी युवा नेता उपमुख्यमंत्री हैं जो गाहे-बगाहे अपनी ही सरकार के कामकाज पर सवाल उठाते रहते हैं।
साफ-साफ नजर आ रहा है कि कांग्रेस में टीम सोनिया गांधी और टीम राहुल गांधी की लड़ाई अपने चरम पर है। कांग्रेस के बुजुर्ग नेता युवाओं को आगे बढ़ाने की बजाय उन्हें एक-एक करके निपटाने में लगे हैं। कांग्रेस के बुजुर्ग और युवा नेता आमने-सामने हैं। वो मिलकर भाजपा से मुकाबला करने की बजाय एक दूसरे से दो-दो हाथ करने में लगे हैं। मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार की विदाई इसी आपसी लड़ाई का नतीजा है। यह लड़ाई और सरकार की विदाई राहुल गांधी के लिए चिंता का सबब भी है और चुनौती भी क्योंकि भले ही सरकार कांग्रेस की गिर रही हो , सत्ता से बुजुर्ग नेताओं की विदाई हो रही हो लेकिन उनके करीबी युवा नेता भी हताशा और निराशा में हाथ का साथ छोड़ते जा रहे हैं। राहुल गांधी अकेले पड़ते जा रहे हैं।
( लेखक – संतोष पाठक , वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन्होंने डेढ़ दशक तक सक्रिय टीवी पत्रकार के तौर पर राजनीतिक पत्रकारिता की है)