सातवीं शताब्दी में मैथिली साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ ये कथन है मैथिली साहित्यकार और भागलपुर विश्वविद्यालय में मैथिली के विभागाध्यक्ष डॉ केष्कर ठाकुर का। मातृभाषा दिवस के मौके पर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता डॉ केष्कर ठाकुर ने आम लोगों की भाषा में मैथिली साहित्य की व्यापकता पर अपने विचार रखे। उन्होंने मैथिलि साहित्य के क्रमिक विकास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सातवीं शताब्दी से ही मैथिली साहित्य में आम लोगों की भाषा का प्रयोग हो चुका था।
संगोष्ठी की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ चंद्रमणि ने किया। उन्होंने कहा कि बंगाल तक मिथिला क्षेत्र है। चंद्रमणि ने कहा कि बोलचाल की भाषा अलग अलग हो सकती है, लेकिन लेखन भाषा का एक मानक होना जरूरी है। साहित्य अकादमी के चंदन कुमार झा ने कहा कि मैथिली साहित्य को समावेशी होना पड़ेगा।
कार्यक्रम में अतिथि साहित्यकार बिनीता मल्लिक ने कहा कि मातृभाषा संस्कार और अनुशासन सिखाती है। इसलिए मातृभाषा का संरक्षण बेहद ज़रूरी है। उन्होंने गांधी जी कि कही हुई बात को उद्धृत करते हुए कहा कि मातृभाषा उतना ही जरूरी है जितना माँ का दूध। विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान में मैथिली साहित्य में आलोचनात्मक रचना की कमी है।
मैथिली के प्रोफेसर डॉ सुरेश पासवान ने कहा कि वर्ण व्यवस्था के बीच की खाई को पाटने में मैथिली भाषा एक कड़ी हो सकती है। साहित्य अकादमी के क्षेत्रीय सचिव डॉ देवेंद्र देवेश ने साहित्य और लोक साहित्य पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आम लोगों के शब्द और शैली को रचनाओं में समावेश की जरूरत है।
कार्यक्रम में संस्था के कार्यालय सचिव विमल जी मिश्र द्वारा संपादित स्मारिका का विमोचन किया गया। साथ ही साहित्य अकादमी पुरस्कार से समान्नित डॉ शेफालिका वर्मा द्धारा लिखित किताब यायावरी के दूसरे संस्करण का भी लोकार्पण किया गया।
साथ ही संस्था के अध्य्क्ष अमरनाथ झा द्वारा संपादित पुस्तक दलित कथा का भी लोकार्पण किया गया। इससे पहले कार्यक्रम का शुभारंभ दीप प्रज्वलन और भगवती के गीत से हुआ। कार्यक्रम के शुरुआत में संस्था के अध्यक्ष अमरनाथ झा ने संस्था के इतिहास और उद्देश्य पर प्रकाश डाला। झा ने कहा कि यह संस्था मूलरूप से साहित्य के संरक्षण और संवर्धन के लिए काम करता है। कार्यक्रम का मंच संचालन कुमकुम झा ने किया। और धन्यवाद ज्ञापन संस्था के सचिव टी एन झा ने किया।