खेती- न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना को नए चश्मे से देखने की जरूरत

 

By अविनाश झा

आज से पांच साल पहले जब न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना के अंतर्गत किसानों से किए जा रहे धान और गेंहूँ खरीद की बात आती थी, तो बहुत से किसानों को इसके बारे मे पता ही नही होता था। धीरे धीरे इसे आम किसानों के बीच इसे पहुंचाया जा रहा है।विभाग के कंप्यूटरीकरण के साथ साथ धीरे धीरे सबकुछ आनलाइन एवं पारदर्शी हो गया है। विभागीय दायित्वों के साथ सबसे पहले इसमे जिला प्रशासन और राजस्व विभाग का दायित्व बढ़ाया गया ताकि उनके बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग इसे जन- जन तक पहुंचाने मे और उसका लाभ दिलाने मे किया जा सके।। जाहिर है इससे उतरदायित्व निर्धारण मे भी आसानी हुई है।

सिस्टम की सबसे बड़ी कमी यह थी कि जिन बिचौलियों के पास जमीन नही थी, वे भी किसी और की जमीन का कागज लगाकर दूसरे के बैंक खाते मे पैसा भेज देते थे और योजना का गलत लाभ लेने की कोशिश करते थे।। राज्य में लागू आनलाइन ई उपार्जन सिस्टम भले ही कई राज्यों के खरीद सिस्टम को देखने के बाद बनाया गया परंतु उत्तर प्रदेश मे यह यूनिक बनकर उभरा है। सर्वप्रथम किसानों के लिए पंजीकरण की व्यवस्था की गई और उनके पंजीकरण को राजस्व विभाग के पोर्टल भू लेख से लिंक किया गया। इससे किसानों के जमीन की सत्यता प्रमाणित होने लगी और फर्जीवाड़ा पर रोक लग गई। भले ही किसानों के पास विकल्प था कि वे बतायें कि उनके कितनी भूमि पर फसल बोई गई है, परंतु सत्यापन का अधिकार तहसील प्रशासन को दिया गया है। इसबप्रकार के क्रास वेरीफिकेशन ने आंकड़ों की सत्यता को पहचानने मे मदद की है। आनलाइन सिस्टम से पहले किसानों को चेक के माध्यम से भुगतान किया जाता था,जो बियरर होता था। इसे पहले एकाऊंट पेयी सिस्टम मे लाया गया फिर आरटीजीएस के माध्यम से सीधे किसानों के बैंक खाता मे भेजा जाने लगा। लेकिन सबसे फूल प्रूव सिस्टम तब लाया गया जब भारत सरकार के आनलाइन पोर्टल पी एफ एम एस के माध्यम से वेरीफाइड बैंक खाते मे किसानों को उनकी उपज के मूल्य की धनराशि भेजी जाने लगी। यह ऐतिहासिक कदम था, देश मे पहली बार किसी राज्य मे किसानों को उनकी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य पीएफ एम एस सिस्टम से दिया जाने लगा है।अन्य राज्यों ने भी अब इसी को अपनाने का निश्चय किया है।

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खाद्य तथा रसद विभाग इतने पर ही नही रुका है। इसने आनलाइन क्रय के साथ साथ आन लाइन बिलिंग सिस्टम लागू करने का निश्चय कर खरीद प्रक्रिया को पूरी तरह से पेपरलेस बनाने की दिशा मे कदम बढ़ा दिया है। एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए राज्य के सभी क्रय केंद्रों, राइसमिलों और भारतीय खाद्य निगम के भंडारण डिपो की जियो टैगिंग करायी गयी है ,जिससे उन पर आनलाइन मानिटरिंग की जा सके साथ मे इन सबके मध्य मनमाने तरीके से दूरी को दर्शा कर फर्जीवाड़ा को रोका है । पूरे सरकारी खरीद सिस्टम का एंड टू एंड कंप्यूटराईजेशन के माध्यम से ई उपार्जन सिस्टम बनाया गया है ,जिसमे किसानों से धान/गेंहू/ मक्का खरीद के आनलाइन पंजीकरण सिस्टम से लेकर टोकन जेनरेशन, तयशुदा तिथि को क्रय केंद्र पर खरीद, आनलाइन जेनरेटेड रसीद, आनलाइन वेरिफिकेशन के बाद पी एफ एम एस (पब्लिक फाइनेंशियल मैनेजमेंट सिस्टम) के माध्यम से सीधे बैंक खाते मे भुगतान, राइसमिलों द्वारा आनलाइन प्राप्ति/ प्रेषण भारतीय खाद्य निगम डिपो पर प्राप्ति सभी एक आनलाइन चेन सिस्टम से जोड़ दिया गया है, जो पूर्ण पारदर्शी है। पब्लिक ग्रिवांसेस सिस्टम के अंतर्गत टाल फ्री नंबर, काल सेंटर के माध्यम से पब्लिक फीडबैक लेना सुधार की दिशा मे बढ़ता कदम है।

शांताकुमार कमिटी ने कहा था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना(एम एस पी) के अतंर्गत मात्र 6 प्रतिशत किसान ही अपनी उपज बेचते हैं, शेष ओपन मार्केट मे बेचते हैं। जाहिर है इसका लाभ बड़े किसानों को ही मिल पाता है। लघु और सीमांत किसानों द्वारा अभी भी ओपन मार्केट मे बेचने पर प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि एक तो उसके पास समय नही है, पैसे की तत्काल जरूरत है, आढ़ती उन्हे सालभर पैसा उपलब्ध कराते रहतै हैं। एक तरह से आढ़ती इन किसानों के लिए देशी बैंक की तरह काम करते हैं जहाँ वो कभी भी जरूरत के हिसाब से पैसा ले सकते हैं और फसल बेच सकते हैं, परंतु यहां इन्हें एम एस पी से कम पैसा मिलता है।

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किसानों के सीमित संख्या होने के कारण एम एस पी तो औचित्यहीन प्रतीत होता है परंतु बात इतनी सीधी नही है।प्रश्न यहाँ यह उठता है कि यदि एम एस पी यदि औचित्यहीन है तो फिर भला आज किसान इसके लिए उद्वेलित क्यों हैं? जाहिर है उन्हें पता है कि मंडियों मे उनके खाद्यान्न की निलामी जब होती है तो उसकी बोली का आधार एम एस पी ही होता है। प्रत्येक वर्ष बोली का रेट स्वतः एम एस पी मे हुई वृद्धि के अनुरूप बढ़ जाता है। वस्तुतः पीडीएस और एम एस पी मार्केट रेट कंट्रोल करता है।

एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है कि आज मार्केट मे चावल कामन का रेट 2000 रुपये और गेंहूँ का 1800 रुपये के आसपास है, क्यों? क्योंकि आज कोई खरीदार नही है। सरकार ने पीडीएस के अंतर्गत कोरोना के मद्देनजर इतनी भारी मात्रा मे गेंहूँ चावल निर्गमंन कर दिया कि किसी को खाद्यान्न की जरूरत नही रही। सबके पास सरप्लस खाद्यान्न है। जो अपने खाने के लिए धान गेहूं उपजाते हैं ,आज वो भी इसे मार्केट मे बेचना चाहते हैं परंतु मार्केट मे मांग न होने के कारण कोई रेट नही है।।स्वाभाविक रुप से बाजार मे आपूर्ति ज्यादा है और मांग कम । फिर भला रेट कैसे बढ़े? सरकार, एनजीओ, निजी व्यक्ति और संस्थाओं ने इतनी बड़ी मात्रा मे खाद्यान्न वितरित कर दिया कि लोग घरों से अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु गेंहूँ चावल मार्केट मे बेच दिया है। दूसरी ओर सरकार भी शतप्रतिशत सरप्लस खाद्यान्न उत्पादन को खरीदने का दावा नही करती। राज्य के धान खरीद का लक्ष्य राज्य के कुल धान उत्पादन 185 लाख मीट्रिक टन मे से मात्र 55 लाख मीट्रिक टन का ही है। जाहिर है लगभग 70 प्रतिशत खाद्यान्न तो ओपन मार्केट मे ही बिकता है। संभव है इस सिस्टम मे कुछ लोग तकनीकी कारणवश फ्री खाद्यान्न पाने से वंचित रह गये हों, परंतु सभी को कवर करने के भरसक प्रयास किया गया है। कुल मिलाकर पारदर्शिता से विभाग की छवि बदलने का प्रयास किया गया है। लेकिन जब लोगों की आंखों अब भी पहले जैसा चश्मा चढ़ा है, तो उसे वही दिखाई दे रहा है। वक्त की जरूरत है चश्मे का नंबर बदलने की।

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( अविनाश झा, उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में जिला खाद्य विपणन अधिकारी के तौर पर कार्यरत हैं। )