संसद का मानसून सत्र निर्धारित तिथि से दो दिन पहले 11 अगस्त को ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। वैसे तो सदन में विरोधी दलों का हंगामा अब आम बात हो गई है लेकिन बुधवार को संसद के दोनो सदनों में जो देखने को मिला , वो आमतौर पर कम ही देखने को मिलता है। बुधवार को लोकसभा में जहां लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला मानसून सत्र में कामकाज न हो पाने की वजह से दुखी होते नजर आए वहीं राज्यसभा में मंगलवार को हुए हंगामे की निंदा करते-करते सभापति और उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू भावुक होकर रोते नजर आए। आमतौर पर जब भी विपक्ष के हंगामे की वजह से सदन की कार्यवाही स्थगित होती है तो विरोधी दलों पर राजनीतिक निशाना साधने का कार्य सत्ताधारी दल करते रहे हैं लेकिन दोनों ही सदनों के सभापति द्वारा इस तरह से अपनी भावना व्यक्त करने का एक ही तात्पर्य माना जा सकता है कि अब पानी सर के ऊपर चला गया है।
यहां सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर सदन चलाना किसकी जिम्मेदारी है ? क्या शांतिपूर्ण तरीके से सदन चलाना केवल सरकार की जिम्मेदारी है ? क्या सदन में शांत माहौल में हर विधेयक, हर प्रस्ताव पर चर्चा करवाने का जिम्मा सिर्फ विपक्षी सांसदों का ही है ? क्या लोकसभा को चलाने की जिम्मेदारी अकेले लोकसभा स्पीकर की ही है ? क्या राज्यसभा में शांतिपूर्ण तरीके से कामकाज को सुनिश्चित करवाने का जिम्मा सिर्फ सभापति का ही है ? इन सभी सवाल का जवाब एक ही है – नहीं । लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब कुछ सही तरीके से संपन्न करवाने की जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति या एक ही पदासीन अधिकारी की हो ही नहीं सकती है। जिम्मेदारी को तय करने से पहले जरा मानसून सत्र की कार्यवाही पर नजर डालिए।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की खरी-खरी
लोकसभा में कामकाज की रिपोर्ट देते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने बताया कि हंगामे और व्यवधान की वजह से कुल 96 घंटे में से लगभग 74 घंटे सदन में कोई कामकाज नहीं हो पाया। दूसरे शब्दों में कहे तो लोकसभा की 17 बैठकों के दौरान इस सत्र में कुल 96 घंटे कामकाज होना चाहिए था लेकिन हुआ सिर्फ 21 घंटे 14 मिनट। ओम बिरला ने सदन के जरिए देश को बताया कि लोकसभा में केवल 22 प्रतिशत ही कामकाज हो पाया। मानसून सत्र के दौरान लोकसभा में हंगामे के बीच ही 20 विधेयक पारित हुए, 66 तारांकित प्रश्नों के मौखिक उत्तर दिये गए। नियम 377 के अंतर्गत सांसदों ने कुल 331 मामले उठाए और विभिन्न विषयों पर केंद्र सरकार के 22 मंत्रियों ने सदन में अपनी बात रखी। केवल 22 प्रतिशत कामकाज होने से दुखी लोकसभा स्पीकर ने खरी-खरी बात कहते हुए यह भी कहा कि सदन की कार्यवाही चलाना सामूहिक जिम्मेदारी है। साथ ही उन्होने हंगामा करने को अपनी आदत बना लेने वाले सांसदों पर निशाना साधते हुए कहा कि आसन के समीप आकर सदस्यों का तख्तियां लहराना, नारे लगाना सदन की परंपराओं के अनुरूप नहीं है।
राज्यसभा में भावुक हुए सभापति एम. वेंकैया नायडू
11 अगस्त को उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू ने अपने कार्यकाल के 4 वर्ष पूरे कर लिए हैं । बुधवार का दिन उनके लिए जश्न मनाने का दिन होना चाहिए था लेकिन इसकी बजाय वेंकैया नायडू राज्यसभा में लगभग रोने वाले अंदाज में भावुक होते हुए दिखाई दिए। दरअसल वो मंगलवार को विरोधी दलों के कुछ सांसदों द्वारा किए गए बर्ताव से बेहद नाराज और आहत दिखाई दे रहे थे। उन्होने इन सासंदों के बर्ताव की निंदा करते हुए सदन के जरिए देश को बताया कि वो इस वजह से पूरी रात सो नहीं पाए हैं।
विपक्ष अलाप रहा है अलग ही राग
हाल ही में भाजपा संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सदन न चलने देने के विपक्षी सांसदों के रवैये पर सवाल खड़ा करते हुए विरोधी दलों पर निशाना साधा था। लेकिन इन आलोचनाओं और भावुक क्षणों के बीच विपक्ष अब भी अपना अलग ही राग अलाप रहा है। लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौघरी ने एक बार फिर से सरकार पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि सरकार का मकसद विपक्ष को छोटा दिखाना और सच को गुमराह करना है। उन्होने आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार भले ही उन पर आरोप लगाती रहे लेकिन सच यही है कि सरकार चर्चा कराने को ही तैयार नहीं थी। उन्होने कहा कि विपक्षी दलों की बार-बार मांग के बावजूद सरकार ने सदन में पेगासस जासूसी कांड पर चर्चा नहीं कराई।
सदन चलाना सबकी जिम्मेदारी
सदन में विपक्षी दलों का हंगामा कोई नई बात नहीं है। लगभग 74 वर्षों के संसदीय इतिहास में इस सदन ने कई बार हंगामा देखा है। इस देश ने यह भी देखा है कि हंगामे की वजह से सप्ताह और कई बार तो पूरे सत्र में ही कोई कामकाज नहीं हो पाया है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या अतीत की गलतियों की आड़ लेकर हम आखिर कब तक वर्तमान और भविष्य को खराब करते रहेंगे। जनता ने एक दल को बहुमत देकर सत्ता में बैठाया है तो वहीं कुछ अन्य दलों के नेताओं को सांसद बनाकर यह जिम्मेदारी भी दी है कि वो चर्चा के माध्यम से सरकार पर अंकुश लगाए रखे। सदन की कार्यवाहियों और चर्चाओं के माध्यम से ही सांसद अपने-अपने संसदीय क्षेत्र के लिए कई योजनाओं की सौगात केंद्र से ले पाते हैं तो फिर इससे भागना कैसा और क्यों ? यह सवाल जितना विपक्षी दलों के लिए जरूरी है उससे भी ज्यादा सत्ताधारी दल के सांसदों के लिए है क्योंकि लोकसभा चुनाव में तो सभी दलों के सांसदों को जनता से वोट मांगने जाना ही है। इसलिए सदन की कार्यवाही को सूचारू ढंग से चलाना सबकी जिम्मेदारी है। सरकार, विपक्ष ,सभापति सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। ये जिम्मेदारी सभी नेता जितनी जल्दी समझ पाएंगे , देश के लोकतंत्र के लिए उतना ही अच्छा रहेगा।
(लेखक– संतोष पाठक, वरिष्ठ टीवी पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं। ये पिछले 15 वर्षों से दिल्ली में राजनीतिक पत्रकारिता कर रहे हैं। )