भारतीय संस्कृति के विभिन्न रंग-रूप हैं। भारतीयों के जीवन में रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे देश में रसोईघर से त्यौहरों तक में विविध रंगों का प्रयोग विभिन्न अवसरों और पर्वों पर किया जाता है। भारतीय परम्परा के अनुसार भारतीय विवाह में एक रस्म होती है हल्दी की, जिसमें विवाह से पूर्व वर और वधू को हल्दी लगाई जाती है ताकि उनके रंग-रूप में निखार आए। यहां इस बात का उल्लेख इसलिए किया है कि हल्दी का प्रयोग हम भोजन में मसाले के रूप में भी करते हैं और विवाह में भी इसे शुभ माना जाता है। भगवान विष्णु का दिन बृहस्पतिवार माना जाता है अक्सर उस दिन लोग पीले रंग के वस्त्र पहनना पसंद करते हैं।
इस देश में रंगों के साथ हमारा कितना अटूट संबंध है यह हम सभी को ज्ञात है। रंगों की छटा हमें फूलों-फलों और हमारी फसलों तथा विभिन्न वनस्पतियों में देखने को मिलती है। इन फसलों और इनके रंगों पर कई गीत, लोकगीत भी बने हैं। हमारे देश में कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तथा सुदूरवर्ती समुद्रतटीय प्रदेशों अंडमान-निकोबार तक में रंगों की छटा देखने को मिलती है। कहीं यह साज-सज्जा में देखने को मिलती है। कहीं यह घरों के प्रवेश द्वारों के सम्मुख अल्पना के रूप में देखने को मिलती है। उत्तर भारत, दक्षिण भारत और गुजरात एवं महाराष्ट्र में भी अल्पना बनाने का प्रचलन है। दक्षिण भारत में चावल के आटे से और फूलों से अल्पना बनाई जाती हैं।
यहां हम पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड में बनाए जाने वाली ऐपण (अल्पना) के विषय में चर्चा कर रहे हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में ऐपण बनाए जाने का रिवाज है। यह ऐपण गेरू व चावल से बनाए जाते हैं। ऐपण बनाने के लिए पहले उस स्थान पर जहां ऐपण बनाने होते हैं उसे भीगे गेरू से लीपा जाता है। जब वह सूख जाता है तो उस पर स्थान पर भीगा कर पीसे गए चावलों के घोल जिसे बिस्वार कहा जाता है से लकीरें खींची जाती हैं एवं डिजाइन बनाये जाते हैं। कुमाऊं की इस लोककला को ऐपण कहते हैं।
पूजा घर में ऐपण
ऐपण का सदियों पुराना रूप आज उत्तराखंड में आज भी प्रचलित है। लेकिन समय के साथ यह विकसित और समृद्ध होता चला गया है। कुमाऊं की यह गौरवशाली परंपरा, लोक कला, चित्रकला के रूप में लोकप्रिय है। कुमाऊं की इस परंपरा को सहेजे रखे जाने का श्रेय महिलाओं को जाता है, लेकिन अब ऐपण बनाने के लिए लाल व सफेद रंग के पेंट का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। आजकल बाजार में ऐपण के स्टीकर भी उपलब्ध होने लगे हैं। प्राय: ये ऐपण पूजाघर, घरों के मुख्य प्रवेश द्वारों पर और घर के दलानों/आंगनों में बनाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त नवजात शिशु के नामकरण, यज्ञोपवीत संस्कार और विवाह के दौरान भी घरों को ऐपण से सजाया जाता है।
विवाह के दौरान जब बारात वधू के घर आती है तो द्वाराचार के दौरान धूलि अर्घ्य के लिए विशेषतौर पर ऐपण बनाए जाते हैं जहां पर विवाह के मुख्य स्थल पर पहुंचने से पहले वर एवं उसके कुलपुरोहित का मंत्रोच्चार के साथ स्वागत किया जाता है। यहां पर ऐपण के कुछ प्रकारों को बताने का प्रयास किया जा रहा है।
ऐपण के कई प्रकार
देहरी पर बनाए जाने वाले ऐपण अत्यंत खूबसूरत एवं मनोहारी होते हैं। इसमें ‘वसुधरा’ का प्रयोग किया जाता है। वसुधरा ‘खड़ी रेखाएं’ हैं जिन्हें विस्तार डाल कर बनाया जाता है। स्वास्तिक ऐपण सभी देवी देवताओं, ज्ञात व अज्ञात के लिए बनाये जाते हैं। स्वास्तिक ऐपण में स्वस्तिक ही बना होता है। स्वस्तिक सृजन व प्रगति का द्योतक है, जहां स्वस्तिक की विभिन्न रेखाएं मिलती हैं वहां ऊं का स्थान होता है। इन सभी रेखाओं पर बिन्दियां भी बनी होती हैं। ऐपण बनाते वक्त सावधानी बरतनी पड़ती है ताकि रेखाएं सीधी हों और कोई भी ऐपण बिंदियों के बिना पूरा नहीं होता।
जब हवन किया जाता है तो अष्टदल कमल ऐपण बनाया जाता है जो कि नाम से स्पष्ट है कि अष्टकोण के आकार का होता है और कमल के पत्ते बनाए जाते हैं और बीचों बीच में स्वस्तिक भी बनाया जाता है।
दीपावली पर लक्ष्मी के चरण चिह्नों वाले ऐपण बनाए जाते हैं और इन्हें मुख्य प्रवेश द्वार से पूजा स्थल तक बनाया जाता है।
इसी प्रकार भूइयां नकारात्मक और हानिकारक शक्तियों को रोकने के लिए बनाए जाते हैं। यह सूप के बाहरी हिस्से पर बनाया जाता है जो कि बड़ा ही भद्दा और डरावना होता है। सूप के भीतरी हिस्से पर लक्ष्मीनारायण को रेखांकित किया जाता है। पूजा वाले दिन घर के प्रत्येक कोने में सूप को गन्ने से पीटा जाता है ताकि नकारात्मक शक्तियों को भगाया जा सके और सकारात्मक ऊर्जा का वास हो। विवाह के दौरान धूलीअर्घ्य पर वर चक्र ऐपण बनाया जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि जब बारात वधू के घर पहुंचती तो इस पर वर को खड़ा किया जाता है और वैदिक मंत्रोच्चार के साथ वर का स्वागत किया जाता है।
आचार्यचक्र- यह भी विवाह के दौरान ही बनाया जाता है और इस पर वर के कुलगुरू या कुल पंडित को खड़ा कर उनका स्वागत किया जाता है। इस पर कुल गुरू( कुल पंडित) की धूली अर्घ्य के समय ही पूजा की जाती है।
जनेऊ या यज्ञोपवित संस्कार के दौरान ऐपण बनाना आवश्यक होता है। इस ऐपण के केन्द्र में 15 बिन्दु बनाए जाते हैं और इसी पर लड़के को जनेऊ पहनाया जाता है और रक्षाबंधन के दिन जनेऊ बदला जाता है।
भद्रा – यह यज्ञ के समय पर बनाया जाता है। भद्रा विभिन्न प्रकार की होती है ये भी बिनदुओं की संख्या पर निर्भर करती है। इनकी संख्या 12 बिन्दु से लेकर 36 बिन्दुओं तक होती है। भगवान गणेश की पूजा के बाद 16 मातिृका की पूजा होती है ताकि शुभ कार्य निर्विघ्न रूप से संपन्न हो सके। भगवान गणेश दाहिनी और बनाए जाते हैं तथा मातिृकाएं बांयी ओर।
इसी प्रकार नवजात शिशु के ग्यारहवें दिन नामकरण पर बनाई जाने वाली चौकी पर भी ऐपण चिह्न बनाये जाते हैं और उसी दिन नवजात शिशु को धूप के दर्शन कराए जाते हैं। प्रवासी उत्तराखंडी विदेशों में अपनी इस परंपरा को ऐपण के स्टीकरों और वॉल हैंगिंग के द्वारा सहेजे हुए है। आजकल ऐपणों की पेंटिंग्स भी प्रचलन में है।