क्या मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देने का यूरोपीय देशों का फैसला गलत था ? By Santosh Pathak 

इन आतंकवादियों से भी बड़े इस्लाम के दुश्मन वो बुद्धिजीवी हैं जो इनकी हरकतों पर चुप रह जाते हैं। इस्लामोफोबिया के जिम्मेदार भारत, फ्रांस और ऑस्ट्रिया जैसे पीड़ित देश नहीं है बल्कि वो मुस्लिम देश है जो आतंकियों को पैसा और हथियार देते हैं । अगर जल्द ही मुस्लिम देशों और बुद्धिजीवियों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया तो दुनिया के तमाम शांतिप्रिय और धर्मनिरपेक्ष देशों में इस समुदाय के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन और अभियान शुरू होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।

By संतोष पाठक, वरिष्ठ पत्रकार

पिछले कुछ महीनों में यूरोप के अलग-अलग देशों में कट्टरपंथी हमलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हाल ही में फ्रांस में एक फ्रेंच टीचर की हत्या महज इसलिए कर दी गई क्योंकि उन्होंने क्लास में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाते हुए बात की थी। एक षड्यंत्र के तहत योजना बनाकर मुस्लिम कट्टरपंथियों ने फ्रेंच टीचर की हत्या की और जब इस मसले पर खुलकर फ्रांस के राष्ट्रपति ने बयान दिया और एक्शन लिया तो मुस्लिम देशों के खून में उबाल आ गया। फ्रांस में कट्टरपंथी आतंकवादियों ने हमला किया और तमाम मुस्लिम देशों में फ्रेंच उत्पादों के बहिष्कार का अभियान शुरू हो गया।

फ्रांस का मसला अभी थमा भी नहीं था कि सोमार की देर शाम को आतंकवादियों ने ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना को निशाना बना डाला। वियना के उस हिस्से में गोलियां बरसाई गईं जो वहां के अमीर वर्ग का इलाका माना जाता है। राजधानी के इसी हिस्से में सरकारी कार्यालय और तमाम सांस्कृतिक केंद्र भी है।

यूरोप में पिछले एक सप्ताह के भीतर फ्रांस के बाद यह दूसरा आतंकी हमला है। ऐसे में यह सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या यूरोपीय देशों में इस्लामिक आतंकवाद फिर से सर उठाने लगा है ? क्या यूरोपीय देशों ने खुले दिल से मुस्लिम शरणार्थियों को अपने देश में शरण देकर गलत किया ? अरब देशों खासकर सीरिया में जारी संकट के दौरान लाखों मुसलमानों को अपनी जमीन , अपना देश छोड़कर भागना पड़ा था। उस समय कुछ यूरोपीय देशों को छोड़कर ज्यादातर ने मानवता के आधार ओर इन मुस्लिम शरणार्थियों को अपने यहां जगह दी। रहने को छत दिया , जिंदा रहने को भोजन दिया और आज यही कट्टरपंथी इन्ही देशों के नागरिकों को निशाना बना रहे हैं , इसलिए यह सवाल तो खड़ा हो ही रहा है कि क्या मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देकर यूरोपीय देशों ने गलत किया ?

यूरोपोल की रिपोर्ट ने खोली पोल 

यूरोपीय यूनियन के देशों द्वारा कानून व्यवस्था को बनाए रखने को लेकर मिलकर गठित किए गए यूरोपोल की रिपोर्ट इस संबंध में काफी चौंकाने वाले खुलासे करती है। यूरोपोल की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे 20-22 साल के युवा आईएस के चुंगल में फंस रहे हैं। इन आतंकियों का मकसद समाज में भय पैदा करना, फूट डालना, एक खास समुदाय के लोगों का ध्रुवीकरण करना और लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करना है और इसके लिए ये किसी भी हद तक जाने को तैयार है।

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इस यूरोपीय एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक गत वर्षों में यूरोप के 13 देशों में 119 आतंकी हमले किए गए। आतंकी गतिविधियों के लिए यूरोप के 19 देशों में 1,004 लोगों को गिरफ्तार किया गया । सबसे ज्यादा बेल्जियम, फ्रांस , इटली, स्पेन और ब्रिटेन में गिरफ्तार किए गए। इस साल 16 लोगों को जेहादी घटनाओं में अपनी जान गंवानी पड़ी।

ऑस्ट्रिया पर हमले का बड़ा संदेश

ऑस्ट्रिया के वियना में हुआ आतंकी हमला तो कई सवाल खड़े करता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ऑस्ट्रिया ने अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों के तर्ज पर किसी भी अन्य देश के आंतरिक मामलों में शायद ही कभी हस्तक्षेप किया हो। अन्य कई यूरोपीय देशों की तरह इस देश में बंदूक की संस्कृति भी नहीं है। ऐसे में इस देश पर आतंकी हमला करने का फिलहाल तो एकमात्र मकसद दहशत फैलाना ही नजर आ रहा है। दहशत फैलाना कि हम तुम्हारे देश में , तुम्हारे पड़ोस में आ चुके हैं और अब सब कुछ हमारे हिसाब से ही चलेगा।

यूरोपीय देशों में मुसलमानों की आबादी

शरणार्थियों के संकट के समय फ्रांस ने खुलकर मुस्लिम शरणार्थियों का स्वागत किया था। तमाम यूरोपीय देशों की बात की जाए तो वर्तमान में सबसे ज्यादा मुस्लिम जनसंख्या फ्रांस में ही है। फ्रांस में 68 लाख के लगभग मुस्लिम रहते हैं। इसके बाद जर्मनी का नंबर आता है , जहां मुस्लिम लोगों की संख्या 54 लाख के लगभग है। मुस्लिम जनसंख्या के मामले में ब्रिटेन , इटली, नीदरलैंड, स्पेन और स्वीडन का नंबर फ्रांस और जर्मनी के बाद ही आता है।

इस्लामोफोबिया और यूरोपीय देश

इस्लामोफोबिया – इस शब्द की आड़ लेकर मुस्लिम कट्टरपंथ को लगातार जायज ठहराने का एक अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन वास्तविकता सबको नजर आ रही है। आंख बंद कर लेने मात्र से इस संकट से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। यह सोचने वाली बात है कि पिछले एक दशक से यूरोपीय देशों को बार-बार आतंकी हमलों का सामना क्यों करना पड़ रहा है ? जिन देशों में जिस तादाद में मुस्लिम आबादी बढ़ती है उन देशों में उसी तादाद में कानून व्यवस्था और शांति को खतरा क्यों और कैसे पैदा हो जाता है ?

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फ्रांस में जो कुछ हुआ , वह दुनिया ने देखा। ऑस्ट्रिया में जो हुआ , उसकी भारत समेत तमाम देशों ने निंदा की। भारत समेत दुनिया के कई देश संकट की इस घड़ी में फ्रांस के साथ खड़े हैं।

अन्य यूरोपीय देशों की हालत

किसी दौर में दुनिया भर में राज करने वाला ब्रिटेन भी कई बार इन कट्टरपंथियों का आतंकी हमला झेल चुका है। डेनमार्क और स्वीडन जैसे शांतिप्रिय देशों को भी मुस्लिम कट्टरपंथियों ने त्रस्त कर रखा है। मिडिल ईस्ट के आतंक से अपनी जान बचाकर डेनमार्क में शरण लिए हुए ये लोग बड़े पैमाने पर यहां मस्जिदें बना रहे हैं। ये अब यहां की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी बन गए हैं और अपने लिए अलग कानूनों की मांग कर रहे हैं जबकि डेनमार्क एक धर्मनिरपेक्ष देश है।

स्पेन की राजधानी मैड्रिड , बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स समेत शायद ही यूरोप का कोई ऐसा देश अब बचा हो जिसने मुस्लिम शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी हो और वहां शांति हो। पिछले एक दशक में यूरोपीय देशों में मुस्लिमों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है और इसी के साथ उनकी चिंताओं में भी इज़ाफ़ा हो रहा है।

मुस्लिम देशों और मुस्लिम स्कॉलरों का दोहरा रवैया

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रो ने जब मुस्लिम कट्टरपंथियों को सच का आईना दिखाया तो मुस्लिम देशों की तरफ से कड़ी प्रतिक्रिया सामने आई। मुस्लिम देशों में फ्रेंच सामानों के बहिष्कार का अभियान चलाया गया जिसे वहां की सरकारों ने भी समर्थन दिया। लेकिन इन तथाकथित मुस्लिम देशों का रवैया भी बड़ा अजीब है और दोहरा है। जब मुस्लिम शरणार्थियों के सामने जान का संकट था । लाखों मुसलमान देश छोड़ने को मजबूर थे तब इन्ही मुस्लिम देशों ने अपने ही मुस्लिम भाई-बहनों को शरण देने से इंकार कर दिया। अपने-अपने बॉर्डर पर सेनाओं की तैनाती कर दी ताकि ये मुस्लिम शरणार्थी उनके देश में न घुस पाए और अब ये मुस्लिम हितों की बात कर रहे हैं। आपको एक दिलचस्प तथ्य बता दें कि शरणार्थियों को शरण देने के लिए 1951 में जेनेवा शरणार्थी समझौता किया गया था लेकिन दुनिया के सभी 58 अरब – इस्लामी देशों ने अभी तक इस अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी समझौते पर हस्ताक्षर तक नहीं किया है।

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मुस्लिम स्कॉलरों और बुद्धिजीवियों का रवैया तो और भी चिंता में डालने वाला है। ये लोग मुस्लिम आतंकवाद , मुस्लिम कट्टरपंथ पर कुछ भी बोलने से बचते हैं लेकिन इस्लामोफोबिया पर इनके लंबे लंबे लेख आने लगते हैं। शरण देने वालों पर जब हमला होता हैं तो इनकी जुबान तक नहीं हिलती और पीड़ित देश जब जवाब देते हैं तो इन्हें मानवता याद आने लगती है।

ये स्कॉलर आज तक इस बात का जवाब नहीं दे पाए हैं कि हर आतंकवाद की जड़ में कोई न कोई मुस्लिम ही क्यों पकड़ा जाता है ? दुनिया भर के मुस्लिम देश एक साथ खड़े होकर यह क्यों नहीं बोलते कि इस्लाम को बदनाम करने वाले आतंकियों के साथ कोई रहम न बरता जाए और बाकी देशों से पहले हम ही इनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेंगे।

याद रखिए कि इन आतंकवादियों से भी बड़े इस्लाम के दुश्मन वो बुद्धिजीवी है जो इनकी हरकतों पर चुप रह जाते हैं। इस्लामोफोबिया के जिम्मेदार भारत, फ्रांस और ऑस्ट्रिया जैसे पीड़ित देश नहीं है बल्कि वो मुस्लिम देश है जो आतंकियों को पैसा और हथियार देते हैं । अगर जल्द ही मुस्लिम देशों और बुद्धिजीवियों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया तो दुनिया के तमाम शांतिप्रिय और धर्मनिरपेक्ष देशों में इस समुदाय के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन और अभियान शुरू होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।